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सरकार के माईने

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सरकार के माईने
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भारत में जिस प्रकार धार्मिक त्योहारों की वार्षिक पुनरावृत्ति होती है ठीक वैसे ही भारत में हर दो वर्ष पर किसी न किसी प्रकार के चुनाव होते रहते हैं अब चुनाव नगर निगम ,नगर पालिका ,नगर पंचायत ,ग्रामसभाओं के या विधान सभा या लोकसभा के हों / यानि लगभग लगभग हर दुसरे वर्ष मतदाता को पोलिंग बूथ जाना ही होता है और मजे की बात कि हर बार मतदान करते समय वह सुशासन ,सुप्रबंधन ,रामराज्य ,या भयमुक्त अपराधमुक्त भ्रष्टाचारमुक्त साम्प्रदायिकतामुक्त शासन की आस लगाकर पिछले 65 वर्षों से जनप्रतिनिधि चुनता आया है और हर बार जनप्रतिनिधि इन्ही आश्वासनों की गंगा बहाकर जनता को छलते आये हैं और इसी का परिणाम है कि आज प्रत्येक भारतीय नागरिक पर तो लगभग दो लाख रूपया का विदेशी कर्ज है और जबकि राजनेताओं के पास अरबों खरबों की सम्पदा /जनता को आजतक यह समझ में नही आया कि उसके लिए वास्तविक सरकार कौन है और सरकार के माईने क्या हैं ?चुनावी प्रक्रिया के बाद तो नेताजी के दर्शन किसी सुप्रसिद्ध तीर्थ के दर्शन समान हो जाते हैं बल्कि एक बार को कठिन यात्रा करके इष्ट देव के मंदिर या तीर्थ तक को पहुंचा जा सकता है लेकिन गरीबों लाचारों मजदूरों शोषितों वंचितों पीड़ितों मुसलमानों के नाम पर वोट मांगने वाले नेताओं से भेंट करना इन्ही वोटरों के लिए संभव नही / जनता के सरकार के माईने तो केवल सरकारी कर्मचारी है जिसके आगे भारतीय नागरिक को कभी हुजूर तो कभी सरकार तो कभी माईबाप कहकर रिश्वत देकर काम कराना पड़ता है / राष्ट्रपति महोदय भी अपने कार्यकाल की तीसरी वर्षगांठ पर बहुत प्रसन्न थे और अभी तीन महीने पहले पीएम साहब ने अपने कार्यकाल की पहली वर्षगाठं पर पूरे देश में उत्सव मनाया और यूपी में तो नेताजी के ही जन्मदिन पर करोड़ों रुपये बर्बाद किये जाते हैं चाहे मुलायम हों या मायावती / लेकिन जनता का सवाल अब भी वही है कि वास्तविक सरकार कौन है ?जिसको वोट देकर माननीय बनाया कभी तो वह सुनता नही और कभी वह सुनता भी है तो उसी की कोई नही सुनता ?उदाहरण के तौर पर यूपी में सत्ता पक्ष के विधायक से ही मिलना मुश्किल है तो मंत्रियों से असंभव समझो ,तो किसी भी सरकारी कार्यालय में जाओ तो रिश्वत दिए बगैर चपरासी से लेकर अधिकारी तक नही सुनता और अगर सत्ता पक्ष के किसी भी छुटभैय्ये नेताजी को पकड़ लिया तो भले ही सरकारी कर्मचारी उस छुटभैय्ये नेता के दबाब में काम बिना पैसे के करदे लेकिन छुटभैय्या नेताजी को भेंट देनी होगी यानि दोनों ही सूरतों में रिश्वत तो नागरिक को देनी ही है लेकिन नेताजी को दी हुई रिश्वत पार्टी फंड के नाम पर दान मानी जाती है और कर्मचारियों को रिश्वत देना भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है /विपक्ष के विधायक या सांसद जनता की बात अगर सुन भी लें तो सरकारी कर्मचारी इन विपक्षियों की नही सुनते /कहने का अर्थ यही है कि जनता के लिए असली सरकार तो सरकारी कर्मचारी ही है / किसान के लिए पटवारी यानि लेखपाल ,ट्यूबवेल ऑपरेटर , बिजली लाइनमेन ही राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री है क्योंकि इसके लिए सरकार के माईने लेखपाल ट्यूबवेल ऑपरेटर और बिजली लाइनमेन ही है और शुगर मिल गन्ना डालते समय बुग्गी ट्रॉली तोलने वाला बाबू ,पर्ची देने वाला बाबू और पर्ची का भुगतान करने वाला बाबू ही किसान के लिए कलेक्टर कप्तान समान है क्योंकि हर प्लेटफॉर्म पर एक निश्चित घूस देकर ही सिस्टम आगे बढ़ता है और मजे के बात किसान का रोना पिछले 65 वर्षों से आज तक सभी नेता उन लोगों के सामने रोते हैं जो किसान नही हैं और विडंबना देखिये कि बेचारे किसान पटवारियों ट्यूबवेल शुगरमिल के बाबुओं के आगे रोते हैं / नगर निगम के जन्ममृत्यु प्रमाण पत्र से लेकर गृहकर निर्धारण विभाग तक घूसखोरी का ऐसा जाल बिछा है कि कदम कदम पर जनता को बाबुओं को सरकार सरकार कहकर ही रिश्वत देनी पड़ती है और भले ही यूपी शासन ने भतेरे नियम कानून बनाये हुए हों लेकिन चलती तो बाउजी के विवेक की ही है और बाबूजी का विवेक रिश्वत के आयाम पर टिका होता है / अगर कोई विधायक किसी नागरिक को बुलावा भेजे तो नागरिक बुलावे का कारण पूछेगा लेकिन यही नगर निगम से गृहकर निर्धारण का नोटिस आ जाय तो नागरिक की भूख प्यास फाख्ता हो जाती है और नागरिक नोटिस मिलते ही कई जरुरी काम छोड़कर बाबूजी की सेवा में हाजिर हो जाता है /बिजली महकमे का लाईनमेन किसी सरकार से कम नही / घर में सास कितनी भी तेज क्यों न हो, अपनी बहु से लेकर समधीयाने तक को हर समय कोसती रहती हो लेकिन बिजली मीटर के घर में घुसते ही चेहरे पर भय ऐसे प्रदर्शित होता है जैसे घर में यमदूत घुस गया हो क्योंकि पता नही मीटर रीडर मीटर में कोई कमी न बता दे या बिजली की रीडिंग ही गलत न लिख दे क्योंकि उसके बाद तो बाबूजी के मूड पर निर्भर है कि कितनी घूस देनी पड़े ? पीएम साहब हुनर यानि स्किल डेवलमपेन्ट की बात करते हैं लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नही कर पाये कि स्किल के प्रदर्शन का प्लेटफॉर्म क्या होगा ?सरकारी नौकरियों में जातिगत और धर्मगत आरक्षण क्या उनके स्किल डेवलपमेंट योजना का मजाक नही उड़ा रहा है ?निम्न वर्गीय या मध्यम वर्गीय स्वरोजगार के दो ही विकल्प हैं कि व्यक्ति अपनी दुकान करके पैसा कमाए या फिर सड़क किनारे व्यापार करे लेकिन यह कहना जितना आसान है उतना करना नही है क्योंकि कदम कदम पर घूसखोरी व्यापारी को छलती है / किसी भी व्यवसाय का लाइसेंस ही रिश्वत पर निर्भर है उदाहरण के तौर पर अगर कोई व्यक्ति रिटेल मेडिकल स्टोर या थोक मेडिकल स्टोर की दुकान खोलना चाहता है तो सरकारी फीस भले ही तीन हजार हो और वह भी पांच वर्ष के लिए लेकिन सारी फॉर्मल्टीयाँ पूरी करने के बाद बाबूजी को जब तक एक लाख रूपया घूस न दी जाय तो लाइसेंस मिलेगा ही नही और रिश्वत किसी सुनसान जगह नही बल्कि कार्यालय में खुले आम ली जाती है और बाउजी कहता है कि रिश्वत में बाबू ड्र्गइन्स्पेक्टर ड्रगकंट्रोलर से लेकर मंत्रीजी सभी पार्टनर हैं तो व्यवसायी के लिए बाबू ही सरकार हुआ क्योंकि एक ही विंडो पर रिश्वत देकर दो तीन हफ़्तों में लाइसेंस बन जायेगा लेकिन यदि गलती से किसी विधायक को इन्वॉल्व कर लिया तो यही काम देर से और वह भी दुगनी रिश्वत से होगा और क्यों होगा यह आप समझ ही गए होंगे / और अगर पेंठ बाजार में दुकान करें या सड़क किनारे ठेला सजाएँ तो पुलिस कांस्टेबिल ही सरकार है /कहने का मतलब यही है कि हम चुनते किसको हैं ?नेता अपनी मंडली को सरकार कहते हैं जबकि जनता के लिए सरकारी चपरासी और बाबू ही सरकार हैं ? राज्य सरकार चुनने के बाद भी राज्य स्तरीय कार्यालयों में घूस देना अनिवार्य है और केंद्र सरकार चुनने के बाद केंद्र सरकार अधीन कार्यालयों में घूस देनी अनिवार्य है / बस अलग अलग कार्यालयों में जाकर जनता के लिए सरकार के माईने बदल जाते हैं / कचहरी स्वास्थय पुलिस आबकारी आपूर्ति सहकारी बिजली नगरनिगम आवासविकास विकासप्राधिकरण शिक्षा संपत्तिक्रयविक्रय आदि कुछ विभाग तो ऐसे हैं कि जहाँ सामानांतर सरकार चलती है क्योंकि हर विभाग का अपना पीएम सीएम राष्ट्रपति है और ये भाषण तो नही देते और नाहीं इनके चेहरे टीवी पर दीखते हैं और नाहीं इनके बयान अख़बारों में छपते हैं लेकिन जनता का सबसे अधिक शोषण यही करते हैं और इतिहास गवाह है कि इन्ही समानांतर सरकार चलाने वालों पर वोट मांगकर सरकार चलाने वालों की आजीविका निर्भर है क्योंकि येही सरकारी बाबू घूसखोरी की पहली और अंतिम सीढ़ी हैं और वोट मांगकर सरकार चलाने वाले मंत्रियों को इनके ही आगे और इनके ही पीछे रहना पड़ता है / लेकिन एक प्रश्न अब भी जिन्दा खड़ा है कि असली सरकार कौन है यातो वह जो जनता वोट देकर चुनती है या फिर वो जिसको घूस खाकर ये वोट मांगने वाले नियुक्त करते हैं क्योंकि चपरासी से लेकर अब तो प्रशासनिक अधिकारीयों के चयन तक के खुदरा और रिटेल दोनों रेट तय हैं /
रचना रस्तोगी

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