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कर्जमंद या फर्जमंद

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कर्जमंद या फर्जमंद
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हिन्दू धर्म मान्यता में शिशु के जन्म से ही उसका यह सिखाना पढ़ाना शुरू कर दिया जाता है कि वह कभी भी अपने जन्मदाता मातापिता का ऋण नही चुका सकता और अपने मातापिता की सेवा करना ही संतान का एकमात्र फर्ज है /लेकिन ऋण क्या है इसका कुछ पता नही बस इतना पता है कि ऐसा ऋण है जो बस चुकाया नही जा सकता किसने लिया और क्यों लिया इसका कोई कोई बहीखाता नही / संतान अपने जन्म से मृत्यु तक का सफ़र इसी ऋण को चुकता करने में व्यतीत करता है और जन्मदाता की मृत्यु उपरांत भी प्रत्येक वर्ष उनके देहावसान तिथि को भी ऋण की क़िस्त श्राद्ध करके चुकाता रहता है /अचम्भा भी एक देखने को मिलता है कि ज्योतिषी भी अक्सर कह देते हैं कि कुंडली में पितृदोष है यानि ऋण की क़िस्त पूरी अदा नही करने के कारण ऋण अभी शेष है / और एक मजे की बात यदि जन्मदाता ने कई संतान पैदा की हुई हों तो भी पितृ दोष सबसे बड़े बेटे के ही गले पड़ता है अगर पहली संतान लड़की को तो वह पितृदोष से मुक्त रहती है / प्रश्न यही उठता है कि संतान का जन्म क्या केवल इसी कर्ज अदायगी के लिए हुआ था ?क्या संतान उत्पत्ति का उद्देश्य इसी स्वार्थ हेतु था कि सेवा करने वाला एक आदर्श अवैतनिक नौकर प्राप्त हो ? जब जन्मदाता का निजी स्वार्थ ही संतानोत्पत्ति का कारण था तो फिर संतान को क्यों कोसा जाता है ? स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्यसमाज स्थापना करते समय यह कहा था कि ईश्वर प्राप्ति ही मनुष्य का एकमात्र कर्म और धर्म है और स्वामीजी शवदाह को अंतिम यज्ञ कहते थे इसके उपरान्त होने वाले उठावनी और तेहरवीं तथा श्राद्ध आदि का विरोध करते थे क्योंकि शरीर त्यागते ही आत्मा को दूसरा शरीर मिल जाता है तो फिर किसकी उठावनी, तेहरवीं,बरसी और श्राद्ध / गर्भस्थ नारी और उसका पति और ससुराल एवं मायेके वाले सभी यही कामना रखते हैं कि जन्म लेने वाला बालक लड़का ही हो क्योंकि बड़ा होकर वंशवृद्धि करेगा और सेवा भी करेगा यानि पूर्ण रूपेण यह जन्म एक निजी व्यक्तिगत स्वार्थ पर आधारित है जहाँ शिशु को एक एग्रीमेंट साइन करना पड़ता है कि वह अपने जन्मदाता की आजीवन निस्वार्थ निष्काम सेवा करेगा और उसको सेवा लायक बनाने के लिए या यूँ कहा जाय कि उत्तम क्वालिटी की सेवा लेने के लिए बालक को महंगी से महंगी शिक्षा भी दिलवायी जाती है यहाँ तक कि जन्मदाता कर्ज पर रूपया लेकर भी संतान को ऊंची से ऊंची शिक्षा दिलवाते हैं केवल इसी स्वार्थ को ध्यान में रखकर कि संतान उनका नाम रोशन करेगी और खूब पैसे कमाकर उनकी अच्छी से अच्छी देखभाल करेगी /और दुर्भागयवश यदि संतान गीता सिद्धांत या सत्यमार्ग अनुगामी हो गयी तो बस जन्मदाता को वह कपूत नजर आने लगेगी क्योंकि गीता में 18 /66 में भगवान् ने अर्जुन को सभी प्रकार के धर्म और कर्त्तव्यों का आश्रय त्यागकर एकमात्र श्री हरि की शरणागति करके उनको स्मरण करते हुए अपने संसारी कर्मों का निर्वाह करने का आदेश दिया था इसी से वह सारे ऋणों से मुक्ति पा लेगा /संसारी कर्मों का निर्वाह करने का अर्थ केवल यही है कि शरीर के धर्म निभाना है और शरीर का एकमात्र धर्म संसार की सेवा और आत्मा का एकमात्र धर्म भगवत भजन है जिसके लिए भी यही मानव शरीर अनिवार्य है /अब शरीर संसार सेवा करे या मातापिता की सेवा करे या भगवत भजन करे इसी का निरूपण गीता का यह श्लोक 18 /66 है /क्योंकि हर कर्म का फल भोगना भगवत सिद्धांत है यानि मानव देह मिलने पर इस शरीर में विराजित मन बुद्धि और अहंकार जिसका सामूहिक नाम अंतःकरण भी है ,ने जो भी कर्म किये हैं उनका फल भोगना निश्चित है यानि मानसिक कर्म का भी महत्त्व है और जब तक सारे कर्मों का फल नही भोग लिया जायेगा तब तक जन्म मरण का चक्र निरंतर चलता रहेगा यानि संतान के ऊपर कर्ज उसके पूर्व जन्मों के कर्मों का है और एक मात्र फर्ज उन सारे भोगों का इसी जन्म में अंत करने का हैं / कर्म अच्छे हैं तो फल भी अच्छा यानि पुण्य कर्म और यदि कर्म बुरे तो फल भी बुरा यानि पाप कर्म और इन दोनों पाप पुण्य कर्मों के फलों से मुक्ति का एकमात्र उपाय हरिभजन है /प्रत्येक संतान इन्ही पुण्य पाप कर्मों के फलों का बोझ लेकर पैदा होती है जिसे प्रारब्ध कहते हैं और प्रारब्ध को भोगना प्रत्येक मनुष्य ही नही बल्कि चौरासी लाख योनियों के प्रत्येक शरीर को भोगना उसकी विवशता है / कोई पशु कोई पक्षी कोई देवता तो कोई दानव कोई बनस्पति तो कोई गन्धर्व या इंद्र बनता है यानि उसका शरीर पहले से ही तय हो जाता है उसके बाद उस शरीर के सुख दुःख मिलने भी तय हैं जिनको किसी भी सूरत में बदला नही जा सकता और यह सब मानव देह मिलने पर मनुष्य द्वारा किये कर्मों पर आधारित होता है / तुलसीदास ने भी कह दिया कि आये यहाँ हरिभजन को और ओटन लगे कपास अर्थात संसार में जन्म लेकर मनुष्य का एक मात्र कर्ज और फर्ज अपनी आत्मा को बारम्बार शरीर ग्रहण करने और त्यागने की बाध्यता से मुक्त करना है और इसका एकमात्र उपाय केवल और केवल मन से हरिभजन करना ही है /लेकिन जन्मदाता कहता है कि केवल उसी की सेवा का अधिकार बनता है ,भगवान् को किसने देखा है और मातापिता ही भगवान् हैं इसलिए संतान का एकमात्र कर्म या धर्म यानि कर्ज और फर्ज केवल जन्मदाता की निस्वार्थ निष्काम नौकरी बजाना है /समस्या साथ में एक और खड़ी तब होती है जब किसी सत्संग या वेद प्रसंग चर्चा में या धर्मग्रन्थ सहिंता स्वाध्याय में भगवान् को और केवल भगवान् को मातापिता भाईबन्धु सगासम्बन्धी यहाँ तक कि विद्या द्रविड़ या सर्वस्व कहना बोलना पड़ जाता है यानि दो दो भगवान् कैसे हो गए एक कि उपासना करनी पड़ती है और एक घर में बैठे जन्मदाता को भी भगवान् कहना पड़ता है /शास्त्रों का सार यही है कि जो जन्मदाता संतान उत्पत्ति ईश्वरभक्त होने के उद्देश्य से करे वह निसंदेह भगवत स्वरुप है लेकिन जो जन्मदाता अवैतनिक निस्वार्थ निष्काम ईमानदार नौकर संतान चाहे वह भगवत स्वरुप नही हो सकती अगर जन्मदाता संतान को ईश्वरभजन से रोकती है तो वह साक्षात् हिरण्यकक्षिपु ही है /सूरदास तुलसीदास कुंभनदास मीराबाई चेतन्यमहाप्रभु बल्लभाचार्य रामकृष्ण परमहंस नानकदेव आदि के जन्मदाता को सब जानते हैं इनकी जीवनी पढ़ाई जाती है लेकिन आडवाणी अटलबिहारी आजमखान मुलायमसिंह सोनिया मायावती के जन्मदाता का नाम कितने जानते हैं ?जबकि मोहनदास गांधी के पिता को जानते हैं क्योंकि वे सत्संग किया करते थे /भगत सिंह , चंद्रशेखर , सुखदेव सुभाषबोस को सब जानते हैं लेकिन उनके जन्मदाता को नही ?संसार में जो भी जन्मा है उसका मरण भी निश्चित है लेकिन जन्म का कारण उसका प्रारब्ध है और मृत्यु भी एक निश्चित पूर्व निर्धारित समय स्थान और कारण के अधीन है / अतः मानवदेह में मिला यह जन्म केवल एक ही उद्देश्य से मिला है कि सारे पाप पुण्य कर्मों के फलों से मुक्त होकर सदा के आनंदधाम निवासी बनें और सारे ऋणों को चुकता करने का एकमात्र उपाय मानसिक हरिभजन और हरिस्मरण ही है /मातापिता की शारीरिक सेवा करना धर्म या कर्म नही बल्कि कर्त्तव्य है और यह कर्त्तव्य निसंकोच निस्वार्थ निष्काम निभाना ही मातृ पितृ ऋण उतारना है /
रचना रस्तोगी

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