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क्या वास्तव में कानून से बूढ़ों को सम्मान मिल सकता है ?

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बुढ़ापे की पीड़ा
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वर्तमान सामान्य में अधिकाँश बूढ़े अपनी संतान से अपने को दुखी एवं ठगा महसूस करते हैं /बूढ़े भी दो प्रकार के होते हैं एक तो वे जो सरकारी नौकरी से रिटायर होते हैं और दुसरे वे जिनकी व्यापारिक पृष्ठभूमि रहती है/सरकारी नौकरी में चूंकि एकाकी स्वतंत्र जीवन जीने की आदत पड़ी रहती है इसलिए भी बूढ़े लोग अपनी संतान से सामंजस्य स्थापित नही रख पाते हैं क्योंकि संतान की पराधीनता उनको स्वीकार्य नही होती है इसलिए छोटी छोटी बातों पर उत्तेजित होते रहते हैं और व्यापारिक पृष्ठभूमि वाले केवल सारा जीवन तो परिवार में बिताते हैं लेकिन बुढ़ापे में अकेला महसूस करते हैं क्योंकि परिवार सदस्य व्यापार में व्यस्त रहने के कारण उनको मनोवांछित समय नही दे पाते हैं/दोनों ही अपनी अपनी जगह ठीक हैं लेकिन मुसीबत संतान को होती है क्योंकि हिन्दू परिवारों में बूढ़ों के द्वारा दिए तानों की वजह से संतान दूरी बनानी शुरू कर देती है और अंततः बूढ़ों की उपेक्षा होने लगती है/ बूढ़ों को केवल अपनी बात ही ठीक लगती है इसलिए वे अपने विचार अपनी संतान पर थोपना अपना अधिकार समझते हैं/ अक्सर यह देखने को मिलता है कि अधिकाँश हिन्दू परिवारों में बूढ़ों को अपनी लड़की और लड़की की संतान से अधिक प्रेम होता है इसलिए भी पुत्र एवं पुत्रवधुएँ अपनी उपेक्षा के कारण दूरी बना लेते हैं/ कहीं कहीं तो नाती और पोतों के बीच इतना भेदभाव प्रदर्षित होता है कि नाती और पोतों के बीच वैमनस्य सा ही स्थापित हो जाता है,और कारण सिर्फ बूढ़ों का एक पक्ष के प्रति अत्यधिक स्नेह / चूंकि कुछ बूढ़े परिस्थति को समझने को तैयार ही नही होते इसीलिए वृद्धाश्रमों में आजकल बहुत भारी बुकिंग रहती है और इनमे भी अधिकतर सरकारी नौकरी की पृष्ठभूमि वाले बूढ़े ही मिलेंगे क्योंकि नियमत समय पर मिलने वाली पेंशन उनका स्वाभिमान बनाए रखने में मददगार रहती है/ अगर साप्ताहिक सत्संगों या धार्मिक गोष्ठियों में सम्मिलित होने वाले बूढ़ों का विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि अधिकांश बूढ़े इसमें व्यापारिक प्रष्ठभूमि वाले ही होंगे क्योंकि अधिकाँश रिटायर्ड बूढ़ों को सत्संग आदि में भी रूचि नही होती है उनको यह सब पाखण्ड लगता है क्योंकि सत्संग आदि में अभिमान अहंकार आदि को छोड़ने की बात बतायी जाती है जो इन रिटायर्ड बूढ़ों को नागँवार गुजरती है/ यही कारण है कि बिमारी की अवस्था में बूढ़ों को एकाकी जीवन जीना पड़ता है /एक बात और बताती हूँ कि लगभग एक हजार बूढ़ों के सर्वेक्षण के दौरान मैंने पाया कि निन्यानवे प्रतिशत बूढ़े जो रिटायर्ड श्रेणी के होते हैं वे सभी किसी न किसी जटिल बिमारी के शिकार होते हैं उच्च रक्तचाप और ह्रदय रोग तो सभी में कामन था और मधुमेह का प्रतिशत भी साठ था /ऐसा नही है कि व्यापारिक प्रष्ठभूमि वाले बूढ़े बीमार नही होते हैं लेकिन उनमे जटिल रोगों का प्रतिशत कम था / बुढ़ापा तो स्वयं में ही एक बिमारी है लेकिन बुढ़ापे में सहारा सभी को चहिये,वह सहारा संतान का हो या पडौसी का हो या किसी सामाजिक संगठन का ही क्यों न हो/ कोर्ट ने बूढ़ों की उपेक्षा को दंडनीय अपराध माना है लेकिन दंड से बूढ़ों का सम्मान नही बढ़ाया सकता केवल बीमारी आदि में चिकित्सा उपलब्ध कराई जा सकती है / अगर बदलते समय के साथ बूढ़े अपने को ढ़ाल सकते होते तो दुखी न होना पड़ता लेकिन हर समय दोष बूढ़ों का नही होता,अपवाद भी होता है और संतान ही कपूत निकल जाती है/कहीं कहीं संतान अपने बूढ़ों की संपत्ति पर नजर लगाए रहती है और बूढ़ों की कई संताने हों तो संतान बूढ़ों की अपेक्षा उनकी संपत्ति पर ज्यादा ध्यान देती है और संपत्ति के लालच में बूढ़ों की ह्त्या तक हो जाती है /बूढ़ों के साथ होती बर्बर घटनाओं में अधिकाँश व्यापारिक प्रष्ठभूमि के किस्से ज्यादा सामने आते हैं क्योंकि व्यापार आदि में बैंक से कर्ज लेते समय मकान जमीन जायदाद आदि गिरवीं रखना एक तरह से अब सामन्य प्रक्रिया सी है इसलिए जमीन जायदाद हड़पने के लिए भी संतान अपने बूढ़ों के दुश्मन बन जाते हैं/ बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी भी बूढ़ों की उपेक्षा का एक कारण है / इसलिए समय समय पर बूढ़ों और संतानों की दोनों की मनोवैज्ञानिक कायुन्सिलिंग होती रहनी चाहिये ताकि हिन्दू परिवारों में बढ़ते मतभेद नयूनतम रह सकें / सरकारी नौकरी में जातिगत आरक्षण की वजह से सामान्य हिन्दू परिवारों में तनाव बहुत अधिक रहने लगा है और जिनको नौकरी मिल जाती है उनसे स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगती है लेकिन बूढ़े लोग अपनी संतानों को बस यही ताने देते रहते हैं कि अमुक को इतने का पैकेज मिल रहा है अमुक इतना कमा रहा है अमुक के पास इतनी गाड़ियाँ हैं अमुक के पास इतने प्लाट आदि हैं ,और हमारी औलाद तो कुछ करने को तैयार ही नही /क्योंकि बूढ़ों को भगवान् की सत्ता पर ही विश्वास नही है इसलिए इनको भाग्य या प्रारब्ध की शिक्षा रास ही नही आती /गीता रामायण आदि तो उनको काल्पनिक साहित्य लगते हैं /अगर कोर्ट ने बूढ़ों की सेवा न करने पर संतान को दंड का भागी बताया है तो कोर्ट को इन बूढ़ों के लिए सत्संग आदि सुनना भी अनिवार्य करना चाहिये जिससे बूढ़ों को थोडा समय ईश्वर चिंता में भी बीते /इसलिए पाठकों से भी मैं आशा करती हूँ कि समय समय पर अपने अपने घरों में साप्ताहिक नही तो अर्धमासिक या मासिक ही सही लेकिन नियमित धार्मिक गोष्ठियां या सत्संग आदि का आयोजन करते रहें,जिससे घरों का वातावरण भी सुधेरगा और संतान तथा बूढ़े दोनों ही अपना अपना दायित्व भली भाँती समझ सकेंगे /भगवान् कोई काल्पनिक वस्तु नही अपितु वास्तविकता हैं इसलिए भगवान् से डरना और गीता रामायण आदि द्वारा बताये मार्ग का अनुसरण एवं अनुकरण करना किसी भी द्रष्टि से हानिकारक नही होगा/ संस्कार मातापिता से ही संतान में आते हैं और अगर मातापिता अपनी संतान से असंतुष्ट हैं तो बूढ़ों को भी आत्म अवलोकन करने की आवश्यकता है और संतानों को भी श्री राम चरित मानस का नियमित पाठ करना चाहिए ताकि उनको संतान धर्म समझ में आ सके /
रचना रस्तोगी

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