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“अँधा बांटे रेवड़ी ! अपने अपने को दे” यह मुहावरा लगभग हर पढ़ा लिखा इंसान अपने जीवन काल में एक ना एक बार अवश्य दोहराता है/ प्रश्न यही है कि आखिर अँधा ,रेवड़ी ही क्यों बांटता है ?जबकि वह जानता है कि रेवड़ी मुश्किल से तीन चार महीने ही बाजार में मिलती है और अँधा रेवड़ी बना भी नही सकता तो निश्चित रूप से रेवड़ी बाजार से ही मंगवानी पड़ेगी,तो अंधे के पास केवल रेवड़ी ही विकल्प क्यों , अन्य कुछ और क्यों नही, वह लड्डू,गुड,बताशे,किशमिश आदि भी तो बाँट सकता था / और फिर अँधा भी तो किसी अन्य से ही रेवड़ी पायेगा ,कोई अनजान व्यक्ति उस अंधे को रेवड़ी देगा भी क्यों? अंधे से मिलने वाले कौन होंगे,कभी यह भी तो सोचो ! क्योंकि अंधे से मिलने वाले, अंधे को खाने पीने का सामान देने वाले ,अंधे को कपड़े आदि देने वाले भी तो अंधे के अपने ही होंगे,तो अंधे के पास अगर रेवड़ी उसकी आवश्यकता से अधिक हो जायेगी तो वह देगा भी तो अपने जानने वाले को ही,इसमें इतना बुरा मानने की क्या बात है ? मन मोहन सिंह,क्या आप फिर मनमोहनसिंह जी पर आ गये, बात चल रही थी अंधे की,आप मनमोहनसिंह को बीच में ले आये,भाई वे भारत के सबसे ज्यादा ईमानदार व्यक्ति ही नही बल्कि प्रधान मंत्री भी हैं,ईमानदारी की बात तो केवल मीडिया कहता है जनसाधारण नही, उनकी अपनी भौतिक आँखें है और उन पर सरकारी खर्च से बना चश्मा भी चढ़ा है,और फिर भी उनको राष्ट्रीयहित ना दिखाई पड़े,उनके अधीन केन्द्रीय मंत्री खुले आम लूट खसोट पर आमादा हों,जिनके मंत्री अदालत में प्रधानमन्त्री को दोषी कहें अब ऐसे प्रधानमंत्री को आप सजग नेत्रों वाला भी तो नही कह सकते /भारत माता के सपूत श्री कलमाड़ी स्वयं अदालत में कह रहे हैं कि उनको भूलने की बीमारी है.इसके बाबजूद इन्ही प्रधानमंत्रीजी ने उनको कोमन वेल्थ गेम्स का सरंक्षक बनाया,और पार्टी आलाकमान ने सांसद बनवाया,क्या एक मानसिक अंशविक्षिप्त व्यक्ति को कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति चुनाव का टिकेट देगा या गेम्स सरंक्षक बनाएगा ?सोचना तो पड़ेगा ही ! अर्थशास्त्री होने के बाबजूद,और यह भी जानते हुए कि भारत की पचास प्रतिशत जनता भुखमरी के कगार पर है,सरकारी मंत्रियों के खर्चों पर अंकुश ना लगाना भी तो नेत्रों की सजगता को संदेहात्मक बनाता है /पेट्रोल का सबसे बड़ा उपभोक्ता स्वयं सरकारी तंत्र है,क्या इस पर रोक नही लगाई जा सकती?आज मंत्री तो छोडो बल्कि सरकारी उच्च अधिकारियों के पास कई कई आधुनिक वातानुकूलित गाड़ियाँ हैं जिनका सदुपयोग उनके परिवारजन अपनी अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता में करते हैं ,इतना बड़ा दुरुपयोग जिसकी आँखों के सामने हो रहा हो उसको सजग नेत्रों वाला कहना आँखों का ही अपमान करना है/ शेयर घोटाला,टू जी घोटाला,गेम्स घोटाला,आदर्श सोसाईटी घोटाला,प्राईवेट मेडिकल डेंटल कोलिजों की मान्यता का घोटाला,आदि अनेक घोटाले जिस व्यक्ति की अध्यक्षता में हुए हों उसको कैसे ना कहें कि “अँधा बांटे रेवड़ी अपने अपने को दे”, एक टीचर से प्रधानमंत्री तक का सफ़र करवाने वाली पार्टी का एहसान आखिर वे चुकाते भी कैसे क्योंकि वे लोकसभा से तो कभी चुन कर आये नही बल्कि एक सियासी दल की कृपा से ही सब कुछ संभव हुआ है इसलिये यह मुहावरा किसी ना किसी हद तक फिट भी बैठता है,आपकी क्या राय है ? मुहावरा ठीक है या इसमें भी संशोधन की आवश्यकता है,अगर है तो संसद का सत्र शुरू हो चुका है,एक बिल इस मुहावरे के नाम पर भी !!!!!!!
रचना रस्तोगी
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