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“सरकारी मान्यता प्राप्त साम्प्रादियकता”

bharat
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कफ़न के रंग के बिना जेब के कुरते पाजामे वाले तःथाकथित ईमानदार और स्वयं को जनता की पसंद से चुने हुए कहलाने वाले स्वयंभू घोषित लोकतंत्र के सेनानी सुबह से रात तक एक दूसरे को साम्प्रदायिक शक्ति बताने या सिद्ध करने में लगे रहते हैं परन्तु अपने कारनामों पर पर्दा गिराये रहते हैं / आखिर साम्प्रदायिकता है क्या जिसका बखेड़ा सुबह से लेकर रात तक गाया जाता है / एक विशेष समुदाय या सम्प्रदाय का जातिगत कीर्तन को नेतागण “साम्प्रदायिकता” कहते हैं / परन्तु सरकार ने शिक्षा और रोजगार क्षेत्र में जो देश वासियों का विभाजन किया हुआ है उसका आधार क्या है ? यह भी तो बतायें ? शिक्षा चाहे उच्च हो या तकनीकी हो,नौकरी चाहे चपरासी की हो या उच्च अधिकारी की हो, हर प्रतियोगिता परीक्षा में भी उम्मीदवारों का विभाजन सरकार ने स्वयं जाति के आधार पर ही किया हुआ है/ वह भी पांच दस प्रतिशत नही बल्कि पूरा पूरा पचास प्रतिशत विभाजन , मतलब देशवासियों का बंटवारा ही आधे आधे में मात्र जाति के आधार पर है / क्या यह सरकारी साम्प्रयिकता नही है ? योग्य या दक्ष उम्मीदवार का चयन मात्र इसलिए नही हो पाता कि उसका नाम सरकारी मान्यता प्राप्त सांप्रदायिक शक्तियों में नही है / किसी प्रदेश को ज्यादा महत्व और किसी प्रदेश को कम महत्व क्या सरकारी साम्प्रदायिकता नही है ? किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री को लालकालीन स्वागत और किसी मुख्यमंत्री को गाली क्या यह सरकारी साम्प्रदायिकता नही है? नक्सली या अपराधियों को विधायक बनाना क्या साम्प्रदायिकता नही है ? एक विशेष सप्रदाय के लोगों को उनके तीर्थ स्थान पर भेजने में सरकारी सब्सिडी देना क्या साम्प्रदायिकता नही है, अन्य धर्म के लोगों को तो भेजने में आपत्ति है, क्या इस देश में अपने तीर्थ स्थान पर जाने का देश से खर्चा मांगने का अधिकार केवल एक ही धर्म के लोगों का है? अगर सब समान हैं तो एक प्रदेश को ज्यादा सुविधा क्यों ? क्या यह अन्य प्रदेशवासियों के अधिकार का हनन नही है ?अगर सब समान हैं तो फिर उच्च शिक्षा या तकनीकी शिक्षा या सरकारी नौकरियों में जातिगत आरक्षण क्यों ?क्या यह साम्प्रदायिकता नही है ? नेतागण जिनकी सरकारी परिभाषा ही जनसेवक है,क्यों वे देश की जनता द्वारा वसूले गये टैक्स को अपना व्यक्तिगत धन समझ कर खर्च करते हैं,क्या यह साम्प्रदायिकता नही है ? क्यों देशवासी इनके(सरकारी जनसेवकों के ) रहने खाने घूमने इलाज कराने तक का खर्च वहन करें? क्या यह साम्प्रदायिकता नही है? विश्व बैंक से कर्जा लेकर मौज तो ये करें और उस कर्ज का बोझा पूरा देश वहन करे,क्या यह साम्प्रदायिकता नही है ? किसी आरक्षित वर्ग के व्यक्ति को उसकी जाति से संबोधित करने पर जाति सूचक शब्द कहने के अपराध में जेल जाना पड़ता है जबकि वह स्वयं ही तहसील से लेकर जिलाधिकारी तक अपने जाति का प्रमाण पत्र बनवाने में लगा है,वह खुद ही तो सरकारी नौकरी या उच्च शिक्षा में इसी प्रमाणपत्र की सत्यापित प्रतिलिपि लिये घूमता है चस्पा करता है ,अन्य लोग यदि इसी प्रमाण पत्र के आधार पर उसको उसकी ही जाति से संबोधित करदें तो जेल में जाना पड़ता है, जबकि मात्र जाति के आधार पर ही तो अन्य लोगों का आरक्षण तालिका में नाम नही है क्या वे जातिविहीन हैं, नही हैं ना , तो फिर जाट को जाट, बनिया को बनिया,ब्राह्मण को ब्राहमण, सिख को सिख, ईसाई को ईसाई कहने वालों पर यही धारा क्यों नही लगाई जाती है? क्या जातिगत व्यवस्था सरकारी साम्प्रदायिकता नही है ? अगर स्वयं को अपनी जाति से कहलवाना पसंद नही है तो क्यों सरकारी आरक्षण का लाभ लेते हैं? इतनी ही गैरत है तो सामान्य जाति के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर चलें , सामान्य वर्ग के साथ चलें और फिर कोई व्यक्ति चाहे वह कोई भी हो किसी को जाति सूचक शब्द से संबोधित करे तब दंडात्मक प्रक्रिया अपनाई जाय, कानूनन समझा सकता है/ कहने का अर्थ यही है कि जातिगत आरक्षण तो सबसे बड़ा सरकारी साम्प्रायिकता का सबूत है जिसका भरण पोषण समस्त राजनेतिक पार्टियाँ कर रही हैं/ पहले की बात और थी परन्तु जब देश में शिक्षा का विस्तार हुआ है और शिक्षित लोगों की बढ़ोतरी भी हुई तो लोगों को विवेकपूर्वक सोचना चाहिये कि क्या देश में अल्प संख्यक या बहुसंख्यक का बंटवारा उचित है? अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक का वर्गीकरण ही गलत है ,जब सभी इस देश के रहने वाले हैं, सभी इस देश का जल पी रहे हैं, सभी इस देश की भूमि से उत्पन्न अनाज को खा रहे हैं, सभी इस देश की वायु से जिन्दा हैं ,सभी के रक्त का रंग लाल है,सभी भगवान् की पूजा अपनी अपनी पद्धति से करते हैं और सबसे बड़ी “मुख्य बात” कि सभी उस परम सत्ता ,भगवान या अल्लाह या खुदा या गोड की संतान हैं और भगवान् ने ही जब मनुष्यों का वर्गीकरण नही किया तो भारत के इन लोकतांत्रिक सेनानियों का यह अधिकार किसने दिया ? तो सबसे बड़ी सांप्रदायिक शक्ति तो स्वयं यह लोकतांत्रिक कुव्यवस्था ही है जो भारतीयों को जाति , धर्म, सम्प्रदाय, या समुदाय में बांटे हुए है और बेचारे देशवासी इन भ्रष्ट नेताओं के भड़कावे भाषणों में आकर आपस में लड़ते भिड़ते हैं जिसका फायेदा ये सरकारी लोकतंत्र सेनानी उठा रहे हैं / ज्यादा दिनों तक यह नही चलेगा क्योंकि “अति” हर जीज की बुरी होती है और अब “अति” की पराकाष्ठा है.इसलिये बदलाव तो निश्चित आयेगा, बस देखना यह है कि इस बदलाव का सेहरा किसके सिर बंधता है ?
रचना रस्तोगी

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